Tuesday, September 25, 2018

सपने तो हिन्दी में लेने दीजिये

कक्षा में अध्यापक ने बच्चों को अंग्रेजी में ‘माई ड्रीम’ विषय पर निबन्ध लिखने को कहा। सारे बच्चे उसी वक्त लिखने में जुट गये। एक लड़की हाथ पर हाथ धरे बैठी रही तो अध्यापक ने डांटते हुए उससे वजह पूछी। लड़की ने मन की सच्चाई उगलते हुए कहा-जी, मैं क्या करूं, मुझे अंग्रेजी में सपने आते ही नहीं हैं। मेरे सपनों में तितली, जुगनू, बादल, भूत, भगवान जो भी आते हैं, सब मुझसे हिन्दी में ही बात करते हैं। फिर वह लड़की हाथ जोड़ते हुए बोली-सर! हम सारे काम अब इंग्लिश में करते हैं, सभी विषय इंग्लिश में पढ़ते हैं, कृपया सपने तो हमें हिन्दी में ले लेने दीजिये। अंग्रेजी का अध्यापक काफी देर तक गुमसुम खड़ा रहा।
पहले हिन्दी दिवस पर बधाई सन्देश या हिन्दी की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए संदेश मिला करते थे पर इस बार तो हिन्दी पर कटाक्ष की झड़ी-सी लगी हुई थी। जिस संदेश ने सर्वाधिक पीड़ा पहुंचाई वह था-‘जिस देश में हिंदी के लिये दो दबाना पड़े और जहां 90 प्रतिशत से ज्यादा लोग अंग्रेजी में हस्ताक्षर करते हों, वहां हिन्दी दिवस की कैसी बधाई।’ किसी ने लिख भेजा कि हिन्दी दिवस हमें मनाना पड़ता है और मनाया उसी को जाता है जो रूठा हुआ हो। हिन्दी हमसे रूठी हुई है क्योंकि आजादी के 71 साल बाद भी उसे राजभाषा का दर्जा होते हुए भी राजभाषा वाली चौधर नहीं मिली।
एक समय था जब हिन्दी की अनबन सिर्फ दक्षिण की भाषाओं से ही थी। पर अब तो ठेठ हिन्दी भाषी राज्यों में भी हिन्दी को पिछड़ा हुआ सा माना जाने लगा है। वैसे तो समाज पहले ही कई कारणों से बंटा हुआ है पर ताज़ा वजह अंग्रेजी भाषा है कि समाज में दो गुट साफ दिखाई दे रहे हैं- अंग्रेजी भाषी और हिन्दी भाषी। अंग्रेजी भाषियों को इंडियन और हिन्दी भाषियों को भारतीय माना जाने लगा है।
देश में अंग्रेजी के वर्चस्व को देखते हुए लगता है कि अंग्रेज तो चले गये पर अपनी विरासत छोड़ गये। मुद्दा यह नहीं है कि अंग्रेजी पढ़ी जाये या नहीं। बेशक पढ़ी जाये और खूब पढ़ी जाये पर अंग्रेजी पढ़ने के यह मायने कहां से विकसित हो गये कि जो हिन्दी में पले-बढ़े हैं, वे पिछड़े हैं। अंग्रेजी मीडियम विद्यार्थियों ने तो अपनी आंखों पर ऐसा चश्मा लगा लिया है कि उन्हें हिन्दी माध्यम वाले बैकवर्ड प्रतीत होते हैं। इस तरह की मानसिकता पर सिर्फ हैरान हुआ जा सकता है। और यही हैरानी मुझे हो रही है।
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एक बर की बात है अक सुरजा मास्टर बोल्या-वसन्त ने मुझे मुक्का मारा नामक वाक्य की अंग्रेजी बणाओ। नत्थू तैड़ दे सी बोल्या- वसन्त पंच मी।एक और परीक्षा का पेपर लीक, कुछ और गिरफ्तारियां और समूचा परीक्षा तंत्र संदेह के घेरे में। यूपी में अधीनस्थ चयन आयोग की ट्यूबवेल ऑपरेटर की परीक्षा के पेपर लीक की ताजा घटना एक बार फिर युवाओं का दिल तोड़ने वाली साबित हुई है। सरकार-प्रशासन चौकसी के चाहे जितने बड़े इंतजाम कर ले, परचा लीक गिरोहों की सिस्टम में अंदर तक घुसपैठ ने साबित किया है कि उनके पास हर ताले की चाबी है। पर इससे जो सबसे ज्यादा आहत है, वह देश का युवा है जो यह सोचने लगा है कि परीक्षा केंद्र में उनके जूते, जुराबें, घड़ी, कंगन, टॉप्स और कुछेक मामलों में कमीजें तक उतरवा लेने वाला यह तंत्र कैसा है, जो सिर्फ उन पर नजर रखता है लेकिन अपने अंदर पैठते घुनों का कोई इलाज नहीं जानता।
हालिया घटना उत्तर प्रदेश अधीनस्थ चयन आयोग के तहत ट्यूबवेल ऑपरेटर जैसी निचले दर्जे की नौकरी की परीक्षा की है, जिसका 2 सितंबर को आयोजित पेपर परीक्षा से पहले लीक हो गया। मामले के गुनहगार पकड़ में आए तो पता चला कि जिस कोषागार की दोहरी सुरक्षा (डबल लॉक) के बीच वह पेपर रखा था, उसी कोषागार में तैनात कर्मचारी पेपर ले उड़ा। लिहाजा परीक्षा आनन-फानन में रद्द करनी पड़ी। इस घटना ने 3210 पदों के लिए परीक्षा में बैठ रहे दो लाख से ज्यादा अभ्यर्थियों के मन में यह सवाल पैदा किया है कि आखिर यह कैसा परीक्षा तंत्र है जो पर्चों को सुरक्षित रखने का माकूल प्रबंध नहीं कर पाता है। मामले में पकड़ा गया टीचर करोड़पति निकला। आखिर इससे पहले उसकी बेहिसाब दौलत पर उस सिस्टम की नजर क्यों नहीं गई जो परीक्षार्थियों की कलम तक में ब्लूटूथ जैसे इंतजाम खोज निकालने का दावा करता है।
इस साल के आरंभ में कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी) की परीक्षाओं में 17 से 21 फरवरी के बीच पेपर लीक की घटनाओं ने कई सवाल खड़े कर दिए थे। ये घटनाएं छात्रों को इतना व्यथित करने वाली साबित हुईं कि वे धरने-प्रदर्शन और आंदोलन के लिए मजबूर हो गए। 21 फरवरी को एसएससी ने एक प्रश्नपत्र के जवाब सोशल मीडिया पर वायरल होने की शिकायत आने के दावे को गलत बताया था, लेकिन छात्रों ने इस परीक्षा के प्रश्नपत्र के जवाबों का वायरल हुआ स्क्रीनशॉट दिखाया था। उम्मीदवारों ने यह दावा भी किया था कि अगस्त 2016 के बाद जब से एसएससी की परीक्षाएं ऑनलाइन हुई हैं, सभी में धांधली हुई है। इन प्रकरणों से पेपर लीक रोकने के मौजूदा प्रबंध और परीक्षा की ऑनलाइन व्यवस्था, दोनों ही संदेह के घेरे में आ चुकी हैं।
उल्लेखनीय है कि करीब एक दशक पहले देश के सातों आईआईएम की संयुक्त परीक्षा यानी कैट एग्जाम ऑनलाइन कराने का एक प्रयोग किया गया था। अमेरिकी कंपनी प्रोमेट्रिक को 32 शहरों के 105 केंद्रों पर ऑनलाइन परीक्षा संचालित करने का ठेका देकर यह भरोसा जताया गया था कि परीक्षा के सफल आयोजन की सारी तैयारी की गई है। लेकिन कैट परीक्षा के पहले ही दिन ऐसे सारे दावों की कलई खुल गई। उस वक्त नौ शहरों के 11 केंद्रों पर परीक्षा रद्द करनी पड़ी।
सभी केंद्रों पर ऑनलाइन परीक्षा सुचारु रूप से संपन्न हो सके, इसलिए सभी केंद्रों के इंतजामों की जांच करने के लिए एक ऑडिट एजेंसी नियुक्त की जाती है। यह एजेंसी सभी परीक्षा केंद्रों पर सॉफ्टवेयर की सुरक्षा जांचने के अलावा सभी केंद्रों पर सीसीटीवी निगरानी के प्रबंध, पावर बैकअप यानी बिजली जाने की सूरत में उसके वैकल्पिक इंतजाम, अतिरिक्त कंप्यूटरों की उपलब्धता, अतिरिक्त सर्वर, एयर कंडीशनिंग की सुविधा आदि तैयारियों का आकलन करते हुए सुनिश्चित करती है कि किसी भी स्तर पर भूलचूक और सेंधमारी की गुंजाइश न रहे। परीक्षाओं के ऑनलाइन प्रबंध की यह कहते हुए आलोचना की जाती है कि इसमें शहरी पृष्ठभूमि वाले और इंजीनियरिंग व कॉमर्स के छात्र-छात्राओं को बढ़त मिल जाती है क्योंकि वे तकनीकी प्रबंधों को लेकर सहज रहते हैं। इन प्रवेश परीक्षाओं की आलोचना इसलिए होती रही है कि इनमें गणनात्मक योग्यता, तार्किकता, शाब्दिक योग्यता और अंग्रेजी के भाषा ज्ञान पर बहुत अधिक जोर दिया जाता है।
जिस तरह कई राजनीतिक दल चुनावों में वोटिंग की इलेक्ट्रॉनिक व्यवस्था यानी ईवीएम को संदिग्ध मानते हैं, उसी तरह नौकरी और प्रतियोगी परीक्षाओं के ऑनलाइन प्रबंध को लेकर युवाओं में अविश्वास पैदा हो गया है। उनके मन में इस अविश्वास को और गहरा कर दिया है कि कहीं ऑनलाइन परीक्षा के नाम पर सिस्टम में बैठे लोग मिलीभगत करके सिर्फ अपने लोगों या पैसा देने वालों का ही रास्ता तो साफ नहीं कर रहे हैं।
जिस तकनीक से परीक्षा ली जाती है, उससे किसी भी कंप्यूटर का रिमोट एक्सेस (कहीं से भी कंप्यूटर को कंट्रोल करना) आसानी से किया जा सकता है। ऐसे में जरूरी हो गया है कि ऑनलाइन शिक्षा और परीक्षा पद्धति को नई जरूरतों के अनुसार परखा जाए।

Thursday, September 6, 2018

समलैंगिकता अपराध नहीं: सुप्रीम कोर्ट

देश की सर्वोच्च अदालत ने गुरुवार को समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया है. इसके अनुसार आपसी सहमति से दो वयस्कों के बीच बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अब अपराध नहीं माना जाएगा.
सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, एएम खानविल्कर, डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की संवैधानिक पीठ ने इस मसले पर सुनवाई की.
धारा 377 को पहली बार कोर्ट में 1994 में चुनौती दी गई थी. 24 साल और कई अपीलों के बाद सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने अंतिम फ़ैसला दिया है.

चीफ़ जस्टिस ने क्या कहा?
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा है कि आज का फ़ैसला इस समुदाय को उनका हक देने के लिए एक छोटा सा कदम है. एलजीबीटी समुदाय के निजी जीवन में झांकने का अधिकार किसी को नहीं है.
जस्टिस इंदु मल्होत्रा में कहा कि इस समुदाय के साथ पहले जो भेदभाव हुए हैं उसके लिए किसी को माफ़ नहीं किया जाएगा.

जस्टिस नरीमन ने कहा ये कोई मानसिक बीमारी नहीं है. केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को ठीक से समझाए ताकि एलजीबीटी समुदाय को कलंकित न समझा जाए.

फ़ैसले का स्वागत करते हुए आईआईटी मुंबई के याचिकाकर्ता कृष्णा ने कहा, "आईआईटी में दाखिला मिलने पर भी इतनी खुशी नहीं हुई थी, जितनी आज हो रही है. मैं इतना खुश हूं कि आंखों से आंसू रोके नहीं रुक रहे. फिलहाल ये नहीं पता कि इस फैसले से मेरे जीवन में क्या फ़र्क पड़ने वाला है, लेकिन इतना जरूर है कि अब बिना किसी डिप्रेशन, बिना किसी डर के हम भी जीवन जी सकेंगे." 

ललित ग्रुप ऑफ होटल के केशव सूरी ने फैसले का स्वागत करते हुए बीबीसी से बात की. उनके मुताबिक लड़ाई अभी बाकी है. आगे अपने अधिकारों की लड़ाई हमे लड़नी होगी. लेकिन इसे अपराध के दायरे से बाहर निकलना अपने आप में बड़ी उपलब्धि है. सुप्रीम कोर्ट और समुदाय को हमसे माफी मांगने की जरूरत है.
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने साल 2013 में दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले को पलटते हुए इसे अपराध की श्रेणी में डाल दिया था.
भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में समलैंगिकता को अपराध माना गया था. आईपीसी की धारा 377 के मुताबिक, जो कोई भी किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ अप्राकृतिक संबंध बनाता है तो इस अपराध के लिए उसे 10 वर्ष की सज़ा या आजीवन कारावास का प्रावधान रखा गया था. इसमें जुर्माने का भी प्रावधान था और इसे ग़ैर ज़मानती अपराध की श्रेणी में रखा गया था.

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट को इसके विरोध में कई याचिकाएं मिलीं. आईआईटी के 20 छात्रों ने नाज़ फाउंडेशन के साथ मिलकर याचिका डाली थी. इसके अलावा अलग-अलग लोगों ने भी समलैंगिक संबंधों को लेकर अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था, जिसमें 'द ललित होटल्स' के केशव सूरी भी शामिल हैं.

सुप्रीम कोर्ट को धारा-377 के ख़िलाफ़ 30 से ज़्यादा याचिकाएँ मिली.
याचिका दायर करने वालों में सबसे पुराना नाम नाज़ फाउंडेशन का है, जिसने 2001 में भी धारा-377 को आपराधिक श्रेणी से हटाए जाने की मांग की थी.