Sunday, July 8, 2018

नज़रियाः केजरीवाल के सामने ट्रांसफ़र-पोस्टिंग मामले का पेंच

 जुलाई  को सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की एक संवैधानिक पीठ ने तीन स्वतंत्र फ़ैसले सुनाए- जिसमें बिना किसी मतभेद उस अनुच्छेद 239 एए की एक मुकम्मल व्याख्या की गई जिसके अंतर्गत दिल्ली को बतौर केंद्र शासित प्रदेश विशेष दर्जा प्राप्त है.
इस सब की शुरुआत अगस्त  के दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले पर सवाल उठाती नौ रिट याचिकाओं को दाख़िल करने के साथ हुई थी.
उस सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की खंडपीठ ने कहा कि पुनर्विचार याचिकाओं में 239 एए की व्याख्या को लेकर महत्वपूर्ण प्रश्न शामिल हैं, इसलिए खंडपीठ का कहना था कि पहले संवैधानिक पीठ को संवैधानिक प्रश्नों को संबोधित करना चाहिए और उसके बाद ही सुप्रीम कोर्ट का उचित बेंच व्यक्तिगत अपील पर फ़ैसला कर सकता है.
संवैधानिक पीठ ने खुद को संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करने तक ही सीमित कर दिया और उसने कहीं भी मतभेद, असहमति या संदेह के ख़ास क्षेत्रों का ज़िक्र नहीं किया.
संवैधानिक खंडपीठ के निर्णयों के आधार पर कोई अनुमान लगाया जाना अभी जल्दबाजी होगी. जिसमें सबसे विवादास्पद मुद्दों में शामिल सेवा क्षेत्र (जिसे अफ़सरों की ट्रांसफर-पोस्टिंग भी कहा जाता है) और एंटी करप्शन विभाग पर नियंत्रण वापस पाना भी शामिल है.
संवैधानिक पीठ के फ़ैसले के बाद दिल्ली के राजनीतिक शासन को एलजी को सूचित करने के बाद शहर के प्रशासन की बेहतरी के लिए निर्णय लेने और इसे लागू करने का अधिकार मिल गया है, जैसा कि आमधारणा है इसमें अधिकारियों की पोस्टिंग और ट्रांसफर के अधिकार का मसला भी स्वतः शामिल हो गया है.
लेकिन यह व्याख्या की ग़लती है. जबतक टीबीआर को संशोधित नहीं किया जाता या व्यक्तिगत मामलों को संवैधानिक फ़ैसलों के आधार पर बेंच तय नहीं करती, निर्वाचित सरकार पोस्टिंग और ट्रांसफर के अधिकार को अपने हाथ में आ चुका नहीं मान सकती.
आम जनता को यह बेतुका दिख सकता है कि एक निर्वाचित सरकार के पास क़ानून बनाने, सालाना बजट की मंजूरी और योजनाओं-परियोजनाओं को शुरू करने की शक्ति कैसे हो सकती है जब वो एलजी की स्वीकृति के बगैर अधिकारियों की पोस्टिंग ही नहीं कर सकती?

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